विपश्यना (Vipassana) भारत की एक अत्यंत पुरातन ध्यान-विधि है। मानव जातीसे दीर्घ कालसे खोइको आज से लगभग २५०० वर्ष पूर्व भगवान बुद्ध ने पुन: खोज निकाला था। विपश्यना का मतलब है कि जो वस्तु सचमुच जैसी हो, उसे उसी प्रकार जान लेना। यह अंतर्मन की गहराइयों तक जाकर आत्म-निरीक्षण द्वारा आत्मशुद्धि की साधना है। मनकी एकाग्रता के लिये अपने नैसर्गिक श्वास के निरीक्षण से आरंभ करता है। तीक्ष्ण सजगता सेअपने ही शरीर और चित्तधारा का परिवर्तनशील स्वभाव का निरीक्षण करता है और वैश्विक सत्य जैसे नश्वरता,दुःख और अहंभाव का अनुभव करता है।यह सत्य-अनुभूती का सीधा अनुभव ही शुद्धीकी प्रक्रिया है।पूरा मार्ग(धम्म) एक वैश्विक समस्योंका वैश्विक उपाय है और इससे किसी संघठित धर्म या संप्रदाय से कोइ लेना देना नही है। इसिलिये, इसिका किसी जाति, वंश या धर्म से झगडेबिना कही भी, किसी समय कोईभी मुक्तता से अभ्यास कर सकता है, और सभी के लिए समान रूप से फायदेमंद साबित होगा।
विपश्यना क्या नहीं है:
- विपश्यना अंधश्रद्धा पर आधारित कर्मकांड नहीं है।
- यह साधना बौद्धिक मनोरंजन अथवा दार्शनिक वाद-विवाद के लिए नहीं है।
- यह छुटी मनाने के लिए अथवा सामाजिक आदानप्रदान के लिए नहीं है।
- यह रोजमर्रा के जीवन के ताणतणाव से पलायन की साधना नहीं है।
विपश्यना क्या है:
- यह दुखःमुक्ति की साधना है।
- यह मनको निर्मल करने की ऐसी विधि है जिससे साधक जीवन के चढाव-उतारों का सामना शांतपूर्ण एवं संतुलित रहकर कर सकता है।
- यह जीवन जीने की कला है जिससे की साधक एक स्वस्थ समाज के निर्माण में मददगार होता है।
विपश्यना साधना का उच्च आध्यात्मिक लक्ष्य विकारों से संपूर्ण मुक्ति है। उसका उद्देश्य केवल शारीरिक व्याधियों का निर्मूलन नही है। लेकिन चित्तशुद्धि के कारण कई सायकोसोमॅटीक बीमारिया अपनेआप दूर होती है। वस्तुत: विपश्यना दुखः के तीन मूल कारणों को दूर करती है—राग, द्वेष एवं अविद्या। यदि कोई इसका अभ्यास करता रहे तो कदम-कदम आगे बढ़ता हुआ अपने मानस को विकारों से पूरी तरह मुक्त करके नितान्त विमुक्त अवस्था का साक्षात्कार कर सकता है।
विपश्यना साधना बौद्ध परंपरा में सुरक्षित रही है, फिर भी इसमें कोई सांप्रदायिक तत्त्व नहीं है और किसी भी पृष्ठभूमि वाला व्यक्ति इसे अपना सकता है और इसका उपयोग कर सकता है। विपश्यना के शिविर ऐसे व्यक्ति के लिए खुले हैं, जो ईमानदारी के साथ इस विधि को सीखना चाहे। इसमें कुल, जाति, धर्म अथवा राष्ट्रीयता आड़े नहीं आती। हिन्दू, जैन, मुस्लिम, सिक्ख, बौद्ध, ईसाई, यहूदी तथा अन्य सम्प्रदाय वालों ने बड़ी सफलतापूर्वक विपश्यना का अभ्यास किया है। चूंकि रोग सार्वजनीन है, अत: इलाज भी सार्वजनीन ही होना चाहिए।
साधना एवं स्वयंशासन
आत्मनिरिक्षण द्वारा आत्मशुद्धि की साधना आसान नहीं है—शिविरार्थियों को गंभीर अभ्यास करना पड़ता है। अपने प्रयत्नों से स्वयं अनुभव द्वारा साधक अपनी प्रज्ञा जगाता है, कोई अन्य व्यक्ति उसके लिए यह काम नहीं कर सकता। शिविर की अनुशासन-संहिता साधना का ही अंग है।
मनकी गहराईयों मे उतरकर पुराने संस्कारोंका निर्मूलन करनेकी यह विपश्यना साधना सीखने के लिए १० दिन की अवधि वास्तव में बहुत कम है। साधना में एकांत अभ्यास की निरंतरता बनाए रखना नितांत आवश्यक है। इसी बात को ध्यान में रख कर यह नियमावली और समय-सारिणी बनाई गयी है। यह आचार्य या व्यवस्थापन की सुविधा के लिए नहीं है। यह कोई परंपरा का अंधानुकरण अथवा कोई अंधश्रद्धा नहीं है। इसके पीछे अनेक साधकों के अनुभवों का वैज्ञानिक आधार है। नियमावली का पालन साधना में बहुत लाभप्रद होगा।
शिविरार्थी को पूरे ११ दिनों तक शिविर-स्थल पर ही रहना होगा। बीच में शिविर छोड़ कर नहीं जा सकेंगे। इस अनुशासन-संहिता के अन्य सभी नियमों को भी ध्यानपूर्वक पढ़े। अनुशासन-संहिता का पालन निष्ठा एवं गंभीरतापूर्वक कर सकते हों तभी शिविर में प्रवेश के लिए आवेदन करे। जो दृढ़ प्रयास करने के लिए तैयार नहीं हैं, वे अपना समय बर्बाद कर देंगे और इसके अलावा, उन लोगों को परेशान करेंगे जो गंभीरता से काम करना चाहते हैं।आवेदक को समझना चाहिए कि शिविर के नियम कठिन पाने के कारण अगर वह शिविर छोडता है तो उसके लिए वह हानिकारक होगा। यह और भी दुर्भाग्यपूर्ण होगा कि बार बार समझाने पर भी कोई साधक यदि नियमों का पालन नहीं करता है और इस कारण उसे शिविर से निकाला जाता है।
मानसिक रोग से पीड़ित लोगों के लिए
कभी कभी गंभीर मानसिक रोग से पीड़ित व्यक्ति शिविर में इस आशा से आते हैं कि यह साधना उनके रोग को दूर करेगी। कई गंभीर मानसिक बीमारियों के कारण शिविरार्थी साधना से उचित लाभ पाने से वंचित रह जाते हैं अथवा शिविर पूरा करने में असमर्थ रहते हैं। यह नॉन-प्रोफेशनल स्वयंसेवी संघटन होनेके वजहसे ऐसी पार्श्वभूमीके व्यक्तीके ठीक ढंग से देखभालके लिये असमर्थ है।विपश्यना साधना बहुतोंको लाभदायक है तो भी यह साधना औषधोपचार या मानसोपचारके बदलेमे नही है। वैसेही गंभीर मानसिक बीमार व्यक्तिके लिये हम इस साधनाकी शिफारिस नही करते।
अनुशासन संहिता
शील (sīla) साधना की नींव है--नैतिक आचरण। शील के आधार पर ही समाधि (samādhi) —मन की एकाग्रता प्रबंध होता है; एवं प्रज्ञा (paññā) के अभ्यास द्वारा चित्त-शुद्धि होती है--अंतर्ज्ञान।
शील
सभी शिविरार्थियों को शिविर के दौरान पांच शीलों का पालन करना अनिवार्य है:
- जीव-हत्या से विरत रहेंगे।
- चोरी से विरत रहेंगे।
- अब्रह्मचर्य (मैथुन) से विरत रहेंगे।
- असत्य-भाषण से विरत रहेंगे।
- नशे के सेवन से विरत रहेंगे।
पुराने साधक, अर्थात ऐसे साधक जिन्होंने आचार्य गोयन्काजी या उनके सहायक आचार्यों के साथ पहले दस-दिवसीय शिविर पूरा कर लिया है, वह अष्टशील का पालन करेंगे:
- वे दोपहर-बाद (विकाल) भोजन से विरत रहेंगे।
- शृंगार-प्रसाधन एवं मनोरंजन से विरत रहेंगे।
- ऊंची आरामदेह विलासी शय्या के प्रयोग से विरत रहेंगे।
पुराने साधक सायं ५ बजे केवल नींबू की शिकंजी लेंगे, जबकि नए साधक दूध चाय, फल ले सकेंगे। रोग आदि की विशिष्ट अवस्था में पुराने साधकों को फलाहार की छूट आचार्य की अनुमति से ही दी जा सकेगी।
समर्पण
साधना-शिविर की अवधि में साधक को अपने आचार्य के प्रति, विपश्यना विधि के प्रति तथा समग्र अनुशासन-संहिता के प्रति पूर्णतया समर्पण करना होगा। समर्पित भाव होने पर ही निष्ठापूर्वक काम हो पायेगा और सविवेक श्रद्धा का भाव जागेगा जो कि साधक की अपनी सुरक्षा और मार्गदर्शन हेतु नितांत आवश्यक है।
सांप्रदायिक कर्मकांड एवं अन्य साधना-विधियों का सम्मिश्रण
शिविर की अवधि में साधक किसी अन्य प्रकार की साधना-विधि व पूजा-पाठ, धूप-दीप, माला-जप, भजन-कीर्तन, व्रत-उपवास आदि कर्मकांडों के अभ्यास का अनुष्ठान न करें। इसका अर्थ और साधनाओं का एवं आध्यात्मिक विधियों का अवमुल्यन नहीं है बल्कि विपश्यना को अजमाने के प्रयोग को न्याय दे सकें।
विपश्यना के साथ जानबूझकर किसी और साधना विधि का सम्मिश्रण करना हानिप्रद हो सकता है। यदि कोई संदेह हो या प्रश्न हो तो संचालक आचार्य से मिलकर समाधान कर लेना चाहिए।
आचार्य से मिलना
साधक चाहे तो अपनी समस्याओं के लिए आचार्य से दोपहर १२ से १ के बीच अकेले में मिल सकता है। रात्रि ९ से ९.३० बजे तक साधना-कक्ष में भी सार्वजनीन प्रश्नोत्तर का अवसर उपलब्ध होगा। ध्यान रहे कि सभी प्रश्न विपश्यना विधि को स्पष्ट समझने के लिए ही हो।
आर्य मौन
शिविर आरंभ होने से दसवे दिन सुबह लगभग दस बजे तक आर्य मौन अर्थात वाणी एवं शरीर से भी मौन का पालन करेंगे। शारीरिक संकेतों से या लिख-पढ़कर विचार-विनिमय करना भी वर्जित है।
अत्यंत आवश्यक हो तब साधकोंको अन्न,निवासस्थान,शरीरस्वास्थ इत्यादि के लिये व्यवस्थापन से तथा विधि को समझने के लिए आचार्य से बोलने की छूट है। पर ऐसे समय भी कम-से-कम जितना आवश्यक समझे उतना ही बोलें। विपश्यना साधना व्यक्तिगत अभ्यास है। अत: हर एक साधक अपने आप को अकेला समझता हुआ एकांत साधना में ही रत रहे।
पुरुष और महिलाओं का पृथक-पृथक रहना
आवास, अभ्यास, अवकाश और भोजन आदि के समय सभी पुरुषों और महिलाओं को अनिवार्यत: पृथक्-पृथक् रहना होगा। शिविरके दरम्यान पती-पत्नी तथा सहयोगीसे संपर्क वर्ज्य है। यही नियम मित्र तथा कुटुंबके अन्य सदस्योंके लिये भी है।
शारीरिक स्पर्श
शिविर के दौरान सभी समय साधक एक दूसरे को स्पर्श बिल्कुल नहीं करेंगे।
योगासन एवं शारिरीक व्यायाम
विपश्यना साधना के साथ योगासन तथा अन्य शारीरिक व्यायाम का संयोग मान्य है, परन्तु केंद्र में फिलहाल इनके लिए आवश्यक एकांत की सुविधाएं उपलब्ध नहीं है। इसलिए साधकों को चाहिए कि वे इनके स्थान पर अवकाश-काल में निर्धारित स्थानों पर टहलने का ही व्यायाम करें।
मंत्राभिषिक्त माला-कंठी, गंडा-ताबीज आदि
साधक उपरोक्त वस्तुएं अपने साथ न लाएं। यदि भूल से ले आए हों तो केंद्र पर प्रवेश करते समय इन्हें दस दिन के लिए व्यवस्थापक को सौंप दें।
नशीली वस्तुएं, धूम्रपान, जर्दा-तंबाकू व दवाएं
देश के कानून के अंतर्गत भांग, गांजा, चरस आदि सभी प्रकार की नशीली वस्तुएं रखना अपराध है। केंद्र में इनका प्रवेश सर्वथा निषिद्ध है। रोगी साधक अपनी सभी दवाएं साथ लाए एवं उनके बारे में आचार्य को बता दें।
तंबाकू-जर्दा, धूम्रपान
केंद्र की साधना स्थली में धूम्रपान करने अथवा जर्दा-तंबाकू खाने की सख्त मनाई है।
भोजन
विभिन्न समुदाय के लोगों को अपनी रुचि का भोजन उपलब्ध कराने में अनेक व्यावहारिक कठिनाइयां हैं। इसलिए साधकों से प्रार्थना है कि व्यवस्थापकों द्वारा जिस सादे, सात्विक, निरामिष भोजन की व्यवस्था की जाय, उसी में समाधान पायें। यदि किसी रोगी साधक को चिकित्सक द्वारा कोई विशेष पथ्य बतलाया गया हो तो वह आवेदन-पत्र एवं शिविर में प्रवेश के समय इसकी सूचना व्यवस्थापक को अवश्य दें, जिससे यथासंभव आवश्यक व्यवस्था की जा सके।
वेश-भूषा
शरीर व वस्त्रों की स्वच्छता, वेश-भूषा में सादगी एवं शिष्टाचार आवश्यक है। झीने कपड़े पहनना निषिद्ध है। सूर्यस्नान तथा अर्धनग्नता वर्ज्य है।महिलाएं कुर्ते के साथ दुपट्टे का उपयोग अवश्य करें। दुसरोंकी एकाग्रता बनाये रखनेके लिये यह आवश्यक है।
धोबी-सेवा एवं स्नान
बहुतांश केंद्रोपर धोबी-सेवा उपलब्ध नहीं होती है। साधक जिस केंद्र पर जा रहे हैं, वहां इस बारे में पूछ लें। धोबी-सेवा न हो तो साधक पर्याप्त कपड़े साथ लाए। छोटे कपड़े हात से धोये जा सकते हैं। नहाने का एवं कपड़े धोने का काम केवल विश्राम के समय ही करना चाहिए, ध्यान के समय नहीं।
बाह्य संपर्क
शिविर के पूरे काल में साधक अपने सारे बाह्य-संपर्क विच्छिन्न रखे। वह केंद्र के परिसर में ही रहे। इस अवधि में किसी से टेलिफोन अथवा पत्र द्वारा भी संपर्क न करे। कोई अतिथि आ जाय तो वह व्यवस्थापकों से ही संपर्क करेगा।
पढना, लिखना एवं संगीत
शिविर के दरम्यान संगीत या गाना सुनना, कोई वाद्य बजाना मना है। शिविर में लिखना-पढ़ना मना होने के कारण साथ कोई लिखने-पढ़ने का साहित्य न लाएं। शिविर के दौरान धार्मिक एवं विपश्यना संबंधी पुस्तकें पढ़ना भी वर्जित है। ध्यान रहे विपश्यना साधना पूर्णतया प्रायोगिक विधि है। लेखन-पठन से इसमें विघ्न ही होता है। अत: नोटस् भी नहीं लिखें।
टेप रेकॉर्डर एवं कॅमेरा
आचार्य के विशिष्ट अनुमति के बिना केंद्र पर इनका उपयोग सर्वथा वर्जित है।
शिविर का खर्च
विपश्यना जैसी अनमोल साधना की शिक्षा पूर्णतया नि:शुल्क ही दी जाती है। विपश्यना की विशुद्ध परंपरा के अनुसार शिविरों का खर्च इस साधना से लाभान्वित साधकों के कृतज्ञताभरे ऐच्छिक दान से ही चलता है। जिन्होंने आचार्य गोयंकाजी अथवा उनके सहायक आचार्यों द्वारा संचालित कमसे कम एक दस दिवसीय शिविर पूरा किया है, केवल ऐसे साधकों से ही दान स्वीकार्य है।
जिन्हें इस विधि द्वारा सुख-शांति मिली है, वे इसी मंगल चेतना से दाने देते हैं कि बहुजन के हित-सुख के लिए धर्म-सेवा का यह कार्य चिरकाल तक चलता रहे और अनेकानेक लोगों को ऐसी ही सुख-शांति मिलती रहे। केंद्र के लिए आमदनी का कोई अन्य स्रोत नहीं है। शिविर के आचार्य एवं धर्म-सेवकों को कोई वेतन अथवा मानधन नहीं दिया जाता। वे अपना समय एवं सेवा का दान देते हैं। इससे विपश्यना का प्रसार शुद्ध रूप से, व्यापारीकरण से दूर होता है।
दान चाहे छोटा हो या बड़ा, उसके पिछे केवल लोक-कल्याण की चेतना होनी चाहिए। बहुजन के हित-सुख की मंगल चेतना जागे तो नाम, यश अथवा बदले में अपने लिए विशिष्ट सुविधा पाने का उद्देश्य त्याग कर अपनी श्रद्धा व शक्ति के अनुसार साधक दान दे सकते हैं।
सारांश
अनुशासन संहिता का उद्देश्य स्पष्ट करने के लिए कुछ बिंदू
अन्य साधकों को बाधा न हो इसका पूरा पूरा ख्याल रखें। अन्य साधकों की ओर से बाधा हो तो उसकी ओर ध्यान न दें।
अगर उपरोक्त नियमों में से किसी भी नियम के पीछे क्या कारण है यह कोई साधक न समझ पायें तो उसे चाहिए कि वह आचार्य से मिल कर अपना संदेह दूर करें।
अनुशासन का पालन निष्ठा एवं गंभीरतापूर्वक करने से ही साधना विधि ठिक से समझ पायेंगे एवं उससे पर्याप्त लाभ प्राप्त कर पायेंगे। शिविर में पूरा जोर प्रत्यक्ष काम पर है। इस तरह गंभीरता बनाए रखे जैसे कि आप अकेले एकांत साधना कर रहे हैं। मन भीतर की ओर हो एवं असुविधाओं की एवं बाधाओं की ओर ध्यान बिल्कुल न दें।
साधक की विपश्यना में प्रगती उनके अपने सद्गुणों पर एवं इन पांच अंगों—परिश्रम, श्रद्धा, मन की सरलता, आरोग्य एवं प्रज्ञा—पर निर्भर है।
उपरोक्त जानकारी आपकी साधना में अधिक से अधिक सफलता प्रदान करे। शिविर-व्यवस्थापक आपकी सेवा और सहयोग के लिए सदैव उपस्थित हैं एवं आप की सफलता एवं सुख-शांति की मंगल कामना करते हैं।
समय-सारिणी
यह समय-सारिणी अभ्यास की निरंतरता बनाए रखने के लिए बनाई गयी है।
प्रातः ४ बजे | सुबहकी जगानेकी घंटी | |
प्रातः ४.३० से ६.३० | हॉल मे अथवा अपने निवास पर ध्यान | |
प्रातः ६.३० से ८ | नाश्ता ब्रेक | |
सुबह ८ से ९ | ध्यान कक्ष(हॉल))मे सामूहिक साधना | |
सुबह ९ से ११ | आचार्योंकी सूचना अनुसार हॉल मे अथवा निवासस्थानमे ध्यान | |
११ से १२ दोपहर | लंच ब्रेक | |
१२ दोपहर- १ | विश्रांती और आचार्योंसे प्रश्नोत्तरे | |
१ से २.३० | हॉलमे अथवा निवासस्थानमे ध्यान | |
२.३० से ३.३० | हॉलमे सामूहिक साधना | |
३.३० से ५ | आचार्योंकी सूचना अनुसार हॉल मे अथवा निवासस्थानमे ध्यान | |
५ से ६ | चाय और विश्राम | |
शाम ६ से ७ | हॉलमे सामूहिक साधना | |
७ से ८.१५ | हॉलमे आचार्यों के प्रवचन | |
८.१५ से ९ | हॉलमे सामूहिक साधना | |
९ से ९.३० | हॉलमे प्रश्नोंतरोका समय | |
रात ९.३० | अपने कमरेमे विश्रांती और रोशनी बंद |
आप उपरोक्त अनुशासन संहिता की कॉपी उसे ध्यान से पढ़ने के लिए अडोबी एक्रोबेट में यहा डाउनलोड कर सकते हैं। आप प्रस्तावित विपश्यना शिविर में प्रवेश के लिए आवेदन कर सकते हैं।